परीक्षा में विलीन होती शिक्षा
बारहवीं की परीक्षा में आपके कितने परसेंट मार्क्स थे?” ”अच्छे ही थे!” दो खूब परिचित सहकर्मियों की बातचीत के बीच का यह छोटा सा हिस्सा है। परीक्षा के अंकों को लेकर पैदा होता मानसिक संकोच लगभग ‘शख्सियत’ का हिस्सा बनता जाता है। आज की शिक्षा प्रणाली की क्या यह स्वाभाविक निष्पत्ति है कि मनुष्य का सारा व्यक्त्तिव सफलताओं और असफलताओं की तुलनात्मकता के नीचे दबा नजर आता है? ‘सत्यमेव जयते’ के उद्धोष को ‘जीवन मंत्र’ स्वीकार करने वाला यह देश क्या लगातार कुशलतापूर्वक झूठ बोलने और उसे दंभपूर्वक जी लेने वाले पढ़े-लिखे लोगों की आबादी में तब्दील होता जा रहा है? इस सारी पढ़ाई-लिखाई की कवायद का पैमाना क्या है? तरह-तरह की परीक्षाएं। क्या ये सब परीक्षाएं हमें सच के साथ जीवन जीने का माद्दा देती हैं? या फिर येन केन प्रकारेण सफलता बटोर लेने के झूठ का प्रशिक्षण देती हैं? परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं ला पाने की निराशा और कुंठा में हर वर्ष होने वाली आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ ही रही हैं। परीक्षाओं के दिन विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए खासा तनाव पैदा करते हैं। जीवनचर्या पर मानों ‘आपातकाल’ लागू हो जाता है।